देशख़ास

आम आदमी की कमर तोड़ती इंग्लिश मीडियम शिक्षा

भारत में बेसिक शिक्षा की दशा बहुत ही सोचनीय है। सरकारी स्कूलों की होती बदहाली के पीछे कौन जिम्मेदार है सत्ता में रहने वाली सरकारों ने हजारों स्कूल खोल तो दिए हैं लेकिन उनमें आवश्यक सुविधाओं और अध्यन सामग्री की व्यवस्था करना भूल गई हैं। जिन स्कूलों में थोड़ी बहुत सुविधाएं हैंं भी उनका गांव वालों के द्वारा दुरुपयोग किया जा रहा है स्कूल के प्रांगण में पशुओं का बांंधना, स्कूल में कोई नियम कोई व्यवस्था ना होना किस बात की तरफ इंगित करता है, इसे प्रशासन व्यवस्था की लापरवाही कहेंं या सरकारों की मनमानी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की बात करें तो किसी स्कूल में पर्याप्त संख्या में अध्यापक नहीं है और किसी-किसी स्कूल में तो एक भी अध्यापक नहीं है। ना समय से शिक्षकों की भर्ती होती है ना हीं कोई सर्वेक्षण। प्रत्येक 5 वर्ष में नई सरकार है तो बदलती है लेकिन इन स्कूलों की ना दशा सुधरती ना सुरक्षा व्यवस्था।। दोपहर के खाने के रुप में दिए जाने वाला मिड डे मील भी बच्चों तक पूरा नहीं पहुंचता जो पहुंचता है वह भी दूषित अवस्था में। ऐसे में मां बाप अपने बच्चों को इन बेसिक स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजना नहीं चाहते इन स्कूलों में अगर जाते हैं तो वह बच्चे जिनके माता पिता गरीब होते हैं या मजदूर या जिन्हें मिड डे मील का लोभ होता है। संपन्न परिवार का कोई बच्चा इन स्कूलों में पढ़ने नहीं जाता और यही कारण है कि आज अंग्रेजी मीडियम स्कूलों की मनमानी दिन व दिन बढ़ती जा रही है जितनी ऊंची बिल्डिंग इतनी ऊंची फीस होती है इन स्कूलों की। बढ़ती प्रतिस्पर्धा और इंग्लिश मीडियम में बढ़ते नौकरी के अवसरों ने मां बाप को भी मजबूर कर दिया है इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाने के लिए ।

अच्छी शिक्षा का मतलब महंगी फीस से जोड़ दिया गया है जिस स्कूल की फीस जितनी अधिक होगी वहां पढ़ाई का स्तर उतना ही अच्छा होगा लेकिन इंग्लिश मीडियम स्कूल अपने पढ़ाई के स्तर से कम स्कूल में मिलने वाली सुविधाओं से अभिभावकों का ध्यान अपनी ओर अधिक आकर्षित करते हैं। वातानुकूलित कमरे, वातानुकूलित बसें, बड़े-बड़े स्विमिंग पूल बनाकर स्कूल जो बड़े होटल में तब्दील कर दिए जाते हैं वहीं से शुरु होती है स्कूलों की मनमानी एडमिशन के समय बच्चे के साथ साथ माता-पिता की अंग्रेजी में परीक्षा कराई जाती है जो मां बाप पढ़े-लिखे होते हैं वह परीक्षा पास कर लेते हैं और कम पढ़े लिखे माता पिता जो परीक्षा पास नहीं कर पाते अपने बच्चों का एडमिशन ना होने का जिम्मेदार खुद को मानने लगते है।। इन स्कूलों की सीट पहले ही धनाढ्य वर्ग या सोर्स वाले बच्चों से भर दी जाती है और विशेष कोटे की बची सीटों के लिए मारामारी शुरू हो जाती है इन स्कूलों की फीस ने आम आदमी की कमर को तोड़ रखा है जितनी साल की आमदनी नहीं होती उतनी बच्चे की फीस होती है। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की मनमानी और माता-पिता की टूटती कमर का हाल हालिया रिलीज फिल्म हिंदी मीडियम में बखूबी वयां किया गया है।

माता पिता का भी आजकल एक स्टैंडर्ड बन गया है इंग्लिश बोलने वाले माता पिता क्लासी समझे जाते हैं तो हिंदी बोलने वाले माता पिता को दोयम समझा जाता है अपनी मातृभाषा हिंदी में शिक्षा और नौकरी के अवसर ही खत्म होते जा रहे हैं आज अपनी मातृभाषा का स्थान विदेशी भाषा ने जो ले लिया है स्कूल में बच्चे को समझ आये या ना आए हर बात अंग्रेजी में सिखाई जाती है। छोटे बच्चों के कंधों पर किताबों का बोझ अपने खुद के वजन से ज्यादा होता है शिक्षा का बाजारीकरण हो रहा है व्यवसाय बना दिया है लोगों ने शिक्षा को जिनका मकसद शिक्षा देना नहीं धन कमाना ज्यादा हो गया है।

मेरा सवाल यह है कि क्या आज से 20 साल पहले शिक्षा अच्छी नहीं थी, क्या पुरानी शिक्षा दोषपूर्ण थी? या फिर आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा बुद्धिमान हो गई है। आज बच्चे की बुद्धिमता उसके व्यवहारिक ज्ञान से नहीं 99 प्रतिशत अंकों से लगाई जाती है इन स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा का मतलब किताबों को तोते की तरह रटाने से हो गया है बच्चे रोबोट बनते जा रहे है। बढ़ते अंको के प्रतिशत ने माता-पिता की अपेक्षाओं को भी बढ़ा दिया है जो बच्चा 90% से अधिक नंबरों से परीक्षा पास करता है उसे बुद्धिमान समझा जाता है।

स्कूलों के बढ़ते बाजारीकरण और मनमानी को रोकने के लिए हमें खुद आगे आना होगा इन स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए सब को विरोध करने की जरूरत है। माता पिता को अपने बच्चों पर ध्यान देने की आवश्यकता है बढ़ते अंको के प्रतिशत से ज्यादा अपने बच्चों में व्यवहारिक ज्ञान पैदा करने की आवश्यकता है वह शिक्षा किसी स्कूल में नहीं केवल घर पर दी जा सकती है बच्चे को अपनी मनमर्जी से उसकी पसंद के हिसाब से बढ़ने दीजिए जिस क्षेत्र में बच्चा अच्छा कर रहा है उस क्षेत्र में उसे आगे बढ़ाइए।

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