लेख

बहुआयामी व्यक्तित्व केे लेखक- मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद का मानना था कि, लेखक वह है जो मानवता,दिव्यता,और भद्रता का ताना बाना बाॅधे होता है। जो दलित है,पीडित है,वंचित है, चाहे वो व्यक्ति हो या समूह उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फर्ज है। उन्होंने साहित्य के उद्धेष्य और प्रवृति को भी स्पस्ट करते हुये लिखा हैे कि,साहित्य में सबसे बडी खूबी यह है कि,हमारी मानवता को दृढ बनानां है, उसमें सहानुभूति ओर उदारता के भाव पैदा करना हेै। साहित्य वह है जिससे हमारी कोमल औेर पवित्र भावनाओं को प्रेात्साहन मिलेंदसमें सत्य, निस्वार्थ,सेवा, न्याय आदि के जो देवत्व है, जाग्रत हों।

 

मुंशी प्रेमचंद का मानना था कि, लेखक वह है जो मानवता,दिव्यता,और भद्रता का ताना बाना बाॅधे होता है। जो दलित है,पीडित है,वंचित है, चाहे वो व्यक्ति हो या समूह उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फर्ज है।
उन्होंने साहित्य के उद्धेष्य और प्रवृति को भी स्पस्ट करते हुये लिखा हैे कि,साहित्य में सबसे बडी खूबी यह है कि,हमारी मानवता को दृढ बनानां है, उसमें सहानुभूति ओर उदारता के भाव पैदा करना हेै। साहित्य वह है जिससे हमारी कोमल औेर पवित्र भावनाओं को प्रेात्साहन मिलेंदसमें सत्य, निस्वार्थ,सेवा, न्याय आदि के जो देवत्व है, जाग्रत हों।

प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य जगत उनके उक्त कथनों की कसौटी पर खरा उतरता है। वे मानवता के पुजारी थे। धर्म, जाति,सम्प्रदाय,औेर भूखण्डोंकी सीमाओं से बहुत उॅचे होते हुये भी उन्होंने मानवमात्र के यर्थाथ धरातल पर अपने उपन्यासों ेा सृजन किया।सहानभूति की व्यापक धारा उनके उपन्यासों में प्रवाहित हुई है। उन्होंने अपने उपन्यासों में मानव प्राणीवाद का विषेश ध्यान रखा तथा इसे अपने जीवन का दर्षन आधार बनाया। यद्यपि उन्होंने मानव की दुर्बलताओं का चित्रण कराकर उनका परिस्थितियों से संघर्श करवाया। सेवासदन की सुमन, गजाधर पाॅडे,और पद्मसिंह वर्मा, प्रेमाश्रय में प्रेमषंकर, ईफानअली, तथा गबन की जालपा, रमानाथ औेर जोहरा, रंगभ्ूमि के कुॅवरसिंह,और सोफिया तथा कायाकल्प की रानी देवप्रिया आदि का चरित्रविकास आषावाद की इसी सोच के चलते हुआ है।
प्रेमचंद के जीवन में मानवतावाद, आशावाद, के साथ-साथ आदर्शवाद आया जो उनके उपन्यासांे मे ेंस्पस्ट परिलक्षित होता है। गोदान ओैर सेवासदन इसके श्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में भी अनेक सुधारवादी कार्य कियें। अपने चारों ओर धार्मिक ढोंग ,आडम्बर के कारण समाज में व्याप्त हो रही कुरीतियों पर भी अपनी लेखनी से कडा प्रहार किया। उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। तथा स्वॅय विधवा से विवाह कर उदाहरण प्रस्तुत कियां।
वे गाॅधीजी के सत्य अहिंसा से अत्यन्त प्रभावित हुये तथा उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया। आर्थिक समस्याओं पर विचार करते ेसमय उनका ध्यान किसान जमीदार,मिल मालिक,निर्धन पूॅजीपति साधनहीन साधन सम्पन्न, व्यक्तियों के वर्णसंघर्श की ओर गया।उन्होंने किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु समाजवादी दृश्टिकोंण से सुझाव दिये। पे लघु तथा कटुीर उद्योगों के हिमायती थे।

उन्होंने जो भी उपन्यास लिखे सोद्येष्य लिखे। उनका मानना था कि, हमारी कसौटी पर वही उपन्यास खरा उतरेगा, जिसमें चित्रण की स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का साज हो सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश  हो। जो हमें गति संघर्ष और बेचेनी पैदा कर सके।

उनका पूरा जीवन आर्थिक विपन्नताओं में गुजरा। लेकिन उन्होंने अपनी साहित्य साधना नहीं छोडी। उन्होंने रुसी साहित्य का बहुत अघ्ध्यन किया तथा वे उससे बहुत प्रभावित रहे। उनके साहित्य की तुलना गोार्की से की जाती है। प्रेमचंद के ेलेखों और रचनाओं में जहाॅ तहाॅ अनेकऐस अंष तथा टिप्पणियाॅ मिलती हैं, जिनमें उन्होंने ेरुसी साहित्य की बहुत अच्छी जानकारी, उसकी श्रेष्ठता ओैर यूरोप की अन्य भाषाओं के साथ उनके तुलनात्मक महत्व का बहुत बढिया परिचय दिया है।‘‘कहानी कला’’ लेख में कहानी के बढते हुये महत्व को स्पस्ट करने के बाद उन्होंने लिखा है कि, ‘‘ ओर उसे यह गौरव प्राप्त हुआ है, यूरोप के कितने ही महान कलाकारों की प्रतिभा से,जिनमें बल्जाक,मोसांपा,चेखेाव, टाॅलस्टाय,मेक्सिम गाोर्की प्रमुख है।’’

कहानी कला के विकास का ही विवेचन करते हुये उन्होंने आगे लिखा है कि,‘‘ यूरोप की सभी भाषाओं में गल्पों का यथेष्ठ प्रचार हेैं, पर मेरे विचार मे फ्रांस औेर रुस के साहित्य में जितनी उच्च कोटि की गल्पें पाई जाती है, उतनी अन्य यूरोपीय भाषाओं में नहीं पाई जाती। लेकिन यह ध्यान देने की बात हेै कि, जब प्रेमचंद ने रुसी साहित्य की प्रगति के महत्व पर जोर दिया उस समय भारत में अंग्रेजी साहित्य औेर भाषा का बोलबाला था।पहिले वे नवाबराय तथा बाद में वेप्रेमचंद के नाम से लिखते रहें।1930 में उन्होंने ‘‘हॅस’’ मासिक का प्रकाशन  किया लेकिन उसके नियमित प्रकाशन  के लिये उन्हें बहुत अधिक आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पडा। यह सोचकर कि, उन्हें आर्थिक दृष्टि में कुछ सुधार होगा वे फिल्म क्षेत्र में चले गये।

जहाॅ उन्होंने मजदूर तथा नवजीवन नामक दो फिल्मोंकी कहाॅनियाॅ लिखी। लेकिन अपनी लेखनी में काॅट छाॅट तथा निर्माता के अनुरुप अपनी कहानी में परिपर्तन जिससे उनकी कहानी की मूल भावना ही आहत हो वे सहन नहीं कर सके तथा फिल्म इंडस्टी्र को छोडकर वापिस चले ेआये। तथा अपनी लेखनी हॅस तथा जागरण साप्ताहिक के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित करदी।

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