डॉक्टर – कविता

डॉक्टर

मंदिर, मस्जिद, बोले गिरजाघर,
ना आओ जब हों लक्षण ।

अस्पताल, क्लीनिक, बोले डॉक्टर,
आओ जल्दी जब हों लक्षण ।

जब होता दुरुस्त, चंगा भला,
इंसां करे ईश्वर शुक्रिया ।

मगर करे जब वैद्य से बात,
बिल पर होता वाद विवाद ।

आश्चर्यजनक हैं यहां के जन,
डॉक्टर खुदा, पर ये अंजान ।

दिल से इसका धन्यवाद,
चिकित्सक है जड़, ये ही खाद ।

इसकी ईश्वर से हो तुलना,
इसे चुनो या प्रभु को चुनना ।

बात मगर तब जाती बिगड़,
आटे में जब नमक ही नमक ।

शक के घेरे में हर व्यवसाय,
कुछ लोग बड़ाते जब स्वार्थ से आय ।

कुछ होती हैं ख़ुदग़र्ज़ मछली,
जो पूरा तालाब गंदा करती ।

जो भी करें हम कारोबार,
सेवा भाव की भी दरकार ।

कर्म ही बन जाए अपना धर्म,
फैले भाईचारा, नम्रता और मर्म ।

काम गर भाव से किया जाए,
फ़िर असंभव भी संभव हो जाए…
असंभव भी संभव हो जाए……

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

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