तुम ही आधार हो

|| तुम ही आधार हो ||

तुमसे प्रीत की ये रीत है नयी  

पर हौसलों की उड़ान है सधी, 

मुख है निशब्द और ह्रदय सरल 

पर मन के भाव हैं मेरे बड़े प्रबल | 

ये शाख, ये पत्तियां भी विचारती हैं 

विशद हैं भाव कितने मेरे जानती हैं 

स्वप्न में हो तुम मेरे अब सब जगह 

ह्रदय में मेरे बस चुके ये मानती हैं |

कविता की मेरी तुम अब हो विषय 

दोहराऊंगा इसे मैं अब हर जगह 

“नींद” से अपनी अब तुम उठो ज़रा 

ह्रदय के मार्ग पे तुम चलो ज़रा | 

कल्पना को मेरी तुम स्वीकार लो 

काव्य के मेरे अर्थ को पहचान लो 

प्रेम को वाक्य में हैं पिरो रहे 

हर शब्द का बस तुम ही आधार हो |     

कविता