तुम्हारा हिस्सा – कहानी शिल्पी प्रसाद

तुम्हारा हिस्सा

“सुनो, क्रेडिट कार्ड शायद तुम्हारे वालेट में रह गया।” मां आधे रास्ते पहुंच गई थी। अपने घर वो लोग तकरीबन ४-५ बजे तक पहुंच जाएंगे।

मेरे पूछने पर कि और क्या-क्या रह-छूट गया, वो थोड़ी भावुक हो गईं थीं। इतने महीने वो मेरे पास, हमारे साथ रहीं। मां ने उस वक्त मुझे अपना समय और साथ दिया जब मैं घर, कालेज, रिसर्च, बच्चे के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही थी। छह महीने लगभग मैं, छोटेचंद, और मां साथ रहे। सामान का रह जाना लाज़मी था। फोन रख कर घर को नजर भर देख लिया।

छोटेचंद की इस्त्री किए हुए कपड़ों को करीने से वह रख गयी थी। अक्सर उसे रखते वक्त मुझे पुकार लगाकर कहती “देख, कौन सा कपड़ा किस रैक में जाएगा”। कपड़ा संग रखना रह गया। कुर्सी पर उसकी पीली साड़ी तह कर धरी थी, कहा था पैरो को दे देना..उसकी मां पर खूब फबेगी। साड़ी उसे देना रह गया। आते-जाते जनाब के खिलौने के बक्से से अक्सर तुम्हें ठेस लग जाती। इस बारी उसकी जगह बदल दी गई। तुम्हारे जाने के बाद उस बक्से का वापस जगह बदलना रह गया। रह गया तुम्हारा स्टूल जिसपर बैठकर तुम पूजा करती थी यहां।

मंदिर को करीने से साफ सजा दिया है तुमने। फूल जो मैं ज़माने से थाली में रखना चाह रही थी, तुमने वो बदलाव भी कर दिया। तुम कल जब अपने घर पूजा करोगी तो याद करना और मुस्कुराना कि कैसे मेरे पूजा घर में तुम्हारी रखी तुलसी मेरे आदत में रह गई। और छूट गई आसन पर लगें फूलों के दाग़। रह गया तुम्हारा रचा यह बदलाव।

“मुझसे झुक कर इस्त्री नहीं होता है। तुमने तो वैसे भी अपना लैपटॉप डाइनिंग टेबल पर जमा रखा है। यह स्टडी टेबल ठीक रहेगा।” उस कमड़े में आयरन वहीं रखा है। मैंने आज कपड़े वहीं प्रेस किए हैं। और स्वीच ऑफ कर निकलने से पहले बालकनी से झांक लिया था एक बार। कैसे नहीं दिखा कल, एक पका अमरुद वहीं डाली पर छूट गया। कपड़े सूखाने आज बालकनी नहीं छत चली गई थीं। तुम्हारी खींची तार यहीं छूट गईं हैं। मैंने वहीं कपड़े फ़ैला दिए।

काम करते वक्त जब मैं इधर-उधर एक नज़र भी नहीं देख पाती थी, तब भी मुझे पता होता, तुम मुझे देखें जा रही हो। मैं तुम्हें देख अनदेखा करती और सिर स्क्रीन ने नीचे गोत लेती। नज़र मिल जाने पर चाय-कॉफी वाला शाम आज छूट जाएगा। छूट जाएगा तुम संग टहलना। फूल तोड़ मंदिर में रख आना। रह जाएगी हमारी, तुम्हारी, और छोटेचंद की तू-तू-मैं-मैं।

तुम गई तो हो अपने घर, छोड़ गई हो अपनी आदतों की छाप मुझ पर। रह गई हो…रात लगे धारावाहिक की लत में, भोर के फल खाने की आदत में, दोपहर की लेट लतीफी वाली डांट में, शाम की आरती में, पड़ोसियों संग जान-पहचान में, छोटेचंद और तुम्हारी गुटबाजी में।

तुम यहीं रह गयी हो। हम दोनों की दिनचर्या में। जल्दी मिलेंगे, तब तक तुम्हारी छूटी हुई चीज़ें समेट लूं।

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