26 नवम्बर की स्याह रात ..

26 नवम्बर की स्याह रात ..

(शहीदों को श्रद्धांजलि, दिल से अर्पित पुष्पांजलि,
जिन्होने दी जान, कि रोशन रहे गुलिस्ताँ,
है उनको नमन, झुकाए शीश धरा गगन ।)

वो 26 नवम्बर,
काला एक नंबर ।
शर्मसार था अम्बर,
सोया था दिगंबर ।

मुंबई थी दहली,
दहशत थी फैली ।
वो होटल ताज,
सज्जा और साज ।

जगमग था प्रकाश,
उत्सव और नाच ।
वो रंगीं महफ़िल,
वो ज़िंदा दिल ।

हुआ एकदम क्या ?
कुछ ना पता ।
गया कुछ सा हिल,
दहला था दिल ।

आई आवाज़,
गिरी ताज पे गाज ।
हंसती हुई महफ़िल,
रुदन में तब्दील ।

वो दर्द का मंज़र,
जैसे खोंपे खंजर ।
वो डरपोक बुज़दिल,
वो दरिंदे कातिल ।

हाथ में पिस्तौल,
वो अंधी दौड़ ।
मुंह रखा था ढक,
दिल था धक धक ।

गोला बारूद,
ना बिल्कुल वजूद ।
वो आतंकवादी,
थे कई जिहादी ।

थी पाक की साज़िश,
बिन बात की रंजिश ।
सब रहे थे भाग,
जैसे लगी हो आग ।

जो मिली जगह,
लोग वहीं छुपे ।
मची हुई थी भगदड़,
और तेज़ हुई हलचल ।

बच्चों की चीख,
जीवन की भीख ।
वो माता बहनें,
चूर हो रहे गहने ।

वो पति पिता,
क्या हुई खता ?
सब थे गुपचुप,
बड़ा गहरा दुख ।

वो काली रात,
काला इतिहास ।
जो थी बारात,
वो हुई अनाथ ।

जल्लाद की भांति,
छलनी कई छाती ।
ना दया ना भाव,
हरे हो गए घाव ।

ऐसी बेरहमी,
सांसें थीं सहमी ।
वो खून की होली,
ना रुक रही गोली ।

ए के फोर्टी सेवेन,
देखा आखिरी सावन ।
कई हो गई बेवा,
रो रहा कलेजा ।

मैंने ख़ुद से पूछा,
कोई हल ना सूझा !
क्यों बनते दरिंदे ?
क्यों रहते ज़िंदे ?

इनमें ना दिल ?
और ना ही ज़मीर ?
क्यों करते हत्या ?
क्या इनको मिलता ?

ये क्यों ना सीखें ?
सुनें जब ये चीखें ?
इनका क्या मकसद ?
सारी पार हों हद ।

मेरी यही गुज़ारिश,
ईश से है सिफ़ारिश ।
हैवान शैतान,
बनें ये इंसान ।

जो ना बन पाएं,
फ़िर गोली खाएं ।
क्यों मरे निर्दोष ?
फ़िर बाद में रोष ।

कानून हों सख़्त,
अब आ गया वक्त ।
करे अत्याचार,
हो वो गिरफ़्तार ।

जो ज़ुल्मी बंदा,
लगे उसको फंदा ।
हो वो शर्मिंदा,
हक ना रहे ज़िंदा ।

जो हुए शहीद,
उस रात जो बीत ।
उनको श्रद्धांजलि,
भावभीनी पुष्पांजलि ।

है उनकी याद,
हरदम ही साथ ।
ना वे हैं नश्वर,
हैं वे तो अमर ।

है उनको नमन,
उनसे ये चमन ।
हो काश अमन,
ख़ुश हो हर जन ।

(स्वरचित – अभिनव✍)

कविता