आदमी (कविता)

आदमी 
कहीं खो गया है आभासी दुनिया में आदमी
झुंठलाने लगा है अपनी वास्तविकता को आदमी
परहित को भूलकर स्वहित में लगा है आदमी
मीठा बोलकर ,पीठ पर वार करता है आदमी
चलता जा रहा है सुबह शाम आदमी
पता नहीं किस मंजिल पर पहुँच रहा है आदमी
अपनी तरक्की की परवाह नहीं है
दूसरों की तरक्की से जल भुन रहा है आदमी
मन काला है ,पर ग्रंथों की बात करता है आदमी
दूसरों को सिखाता है ,खुद नहीं सीखता है आदमी
अपने अन्दर अहम को बढ़ा रहा है आदमी
पर सुव्यवहार की उम्मीद,दूसरों से कर रहा है आदमी   
क्यूँ आज भीड़ के बावजूद ,हर कोई है अकेला 
दिलों में बसा हुआ है तू मै का झमेला 
बंट गयी है सारी ज़मीन ,ऊँची ऊँची इमारतों में 
या फिर घिर गयी ज़मीन कोठियों की दीवारों में 
‘प्रभात ‘सत्य है ,टूटे ख्वाबों की नीव पर खड़े ये ऊँचे महल
इस ऊंचाई को भी एक दिन जमीन पर सोना है 
अपनी  जरूरतों और इच्छाओं की मत सुन 
सब कुछ पाने के बाद भी इसे खोना है 
धर्म मजहब भी ये कहते हैं 
हर एक प्राणी से तुम  प्रेम करो
गीता ,ग्रन्थ ,कुरान में लिखा है 
नेक चलो सब का भला करो 
जिस शक्ति ने किया है पैदा 
 उसने भेद किसी से किया नहीं है 
प्रेम ,संस्कारों के सिवाय रब ने कुछ लिया नहीँ है  ||

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