अज़य महिया छद्म रचनाएँ – 14

कितने साल गुज़र गए तेरी गलियों में आते-जाते पता ही नहीं चला,
ना तू मिल सकी ना तेरा निशां ||

अज़य महिया

कुछ तो हुआ है मेरी इन झुकी आँखों को
कमबख्त तुम्हारे चेहरे से हटती ही नही हैं ||

अजय महिया

अज़य महिया

अपनी आँखों को देखना है दूसरों की आँखों से देखना,साहब!
सूना हैं ये बहुत जादू-टोने करती हैं

अज़य महिया

कमबख्त सांसे भी तेरे लिए चलती रही हैं
वरना हुस्न लिए तो कई आते हैं हमारे यहाँ

अज़य महिया

ये बारिश के मौसम ,ये हंसी वादियां,ये नज़ारे |
जब भी देखता हूँ तुम्हारी याद आ जाती है ||

अज़य महिया

रात जब ढली तो ख्वाबों में तुमसे जा मिले
सुबह हूई तो देखा कि चांदनी तो नदारद थी
||

अज़य महिया

हमीं महखाने से तौबा कर बैठे
वरना आदत तो तुम जैसी ही थी
||

अज़य महिया

जुदाई लम्बी हो तो बताई नहीं जाती
इसां के चेहरे पर नज़र आ जाती है
||

अज़य महिया

सोख लेती नज़्म खून के एक-एक कतरे को
पर हमने मोहब्बत हिन्दुस्तान से जो की है
||

अज़य महिया

कही गिरा हो एक कतरा भी उस खून का जिसमें हिन्दुस्तान की मोहब्बत हो |
कसम से उस मिट्टी को भरकर पूजने का मन करता है||

अज़य महिया

तराशा था उसे हीरे की तरह अपने दिल में |
कुछ लोगों को पता चलने पर चोरी कर ले गए ||

अज़य महिया

गुमनाम सी मोहब्बत है मेरी
ना दिल जानता है ना आँखें
||

अज़य महिया

सूना है एक रूह की शाम बहुत खुशी देती है
कभी मिले वो शाम तो अपने सारे ग़म डूबो दूं
||

अज़य महिया

कहीं बारिश की झङी है,कहीं ग़मों की आँधी |
रूख़स्त हूँ मैं अब तो आजा मेरे सपनों साथी
||

अज़य महिया

आजकल बारिश की तरह हो गए हो तुम
जब तुम्हारा मन करता तभी बात करते हो
||

अज़य महिया

इस आलम-ए हुश्न का क्या कहें
साहब
सामने आते ही बारिश की तरह बरसते है ||

अज़य महिया

इस शाम-ए-बारिश की क्या तारीफ़ करूं
मैं तो शामे-बारिश का ही सताया हुआ बैठा हूँ
||

अज़य महिया

तुम्हारे शहरों मे नहीं उङती होगी धूल साहब
हम गाँव के लोग धूल को बारिश समझकर नहाते हैं
||

अज़य महिया

खुदा भी तन्हा होकर आँसू बहाता होगा
वरना ये ना होने वाली बारिश क्यों होती
|

अज़य महिया

तितलियों को फूलों से इश्क करते देखा है,
चंचल मन को आसमां पर उङते देखा है
राह सही,पक्की हो तो मंजिल मिल जाती है,
गलत राहों पर जाने वालों को भटकते देखा है
||

अज़य महिया

कही गिरा हो एक कतरा भी उस खून का जिसमें हिन्दुस्तान की मोहब्बत हो |
कसम से उस मिट्टी को जी भरकर पूजने का मन करता है||

अज़य महिया

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