फिर से लिखने चली हूँ

फिर से शब्द संजोने लगी हूँ
फिर से पत्र लिखने लगी हूँ

इस बार थोडी चिंतित हूँ
शब्दों की लड़ाई से भयभीत हूँ

कुछ पुराने स्नेह से सने पुष्प से
कुछ नए बैरंग शुष्क कागजी से
इनके अंतर्द्वंद मे उलझ गयी हूँ

मन:स्थति उमड़ घुमड़ रही है
उंगलियों को सांखले जकड़ रही हैं

कलम का घूँघट उतरने को आतुर
कागज से मिलन को मचल रही हैं

उंगलियों को थोड़ा रोक रही हूँ
प्रणय डोर थोडी खींच रही हूँ

संभल कर चलना सिखा रही हूँ
यथार्थ भावों से प्रेरित होकर
मै फिर से पत्र लिखने चली हूँ|

कविता