सपने महज़ सपने ही रह गए

सपने महज़ सपने ही रह गए

एक सपना आया गाँव से,
खड़ा होने अपने पाँव पे,
भरे जोश और चाव से,
ज़मीं से जुड़ा बिन भाव के ।

अकेला आया वो मायानगरी,
संग महनत की लाया गठरी,
अजब ऊर्जा बड़ी तेज़ गति,
हौंसले मज़बूत, निश्चित प्रगति ।

उसे विश्वास, होगा वो सफ़ल,
ऐसा जुनून, हर चीज़ का हल,
छोड़ स्नातक, वो दिया था चल,
करा कर्म, ना चिंता फ़ल ।

कुलाची स्कूल का था होनहार,
ख़्वाब संजोए आया मुम्बई द्वार,
ना समर्थन, ना कोई गॉड-फादर,
निष्ठा से डटा, बिन कोई डर ।

निभाए किरदार उसने दमदार,
सांचे में ढाला ख़ुद को हर बार,
मिली शोहरत, आने लगी बहार,
सफलता ना कभी पर सिर पे सवार ।

लगी ना जाने किसकी नज़र,
चला गया दूर वो बीच डगर,
निगल गया उसे पत्थर का शहर,
उसके सपने हुए तहस नहस ।

ग़लत लोगों में गया वो फंस,
लिव इन वगैरह में गया था धँस,
उसने भी कहा – अब और ना, बस,
उसकी ना चली एक, था बेबस ।

दिन दहाड़े हुई उसकी हत्या,
लीपापोती कर घोषित आत्महत्या,
सबकुछ नज़रअंदाज़ किया,
किसके इशारे पे मुँह को सिया ?

जाते जाते वो चीख़कर कह गया,
शहर गाँव से बहुत पीछे रह गया,
छल फ़रेब से आशियाना डह गया,
ना आओ यहां, यहां सबकुछ बह गया ।

एक चिराग़ जलने से पहले बुझा दिया,
एक फ़ूल खिलने से पहले मुरझा दिया,
एक बाप से छीन उसका सहारा लिया,
उन बहनों से ऐंठ जैसे सारा लिया ।

भोग लालसा वासना की ये नगरी,
सच्चे जन को लगाए हथकड़ी,
स्वार्थ मतलब की नींव पे बैठी,
चकाचोंध पे महज़ है ऐंठी ।

सीधा साधा यहां छाने ख़ाक,
जज़्बातों से होते खिलवाड़,
बेक़सूर दिए यहां जाते मार,
सुरक्षा लिए घूमे गद्दार ।

साग़र से दिलों में आया खारापन,
सब है, फ़िर भी हर ओर खालीपन,
दिखावा, झूठी चमक, अंदर खोखलपन,
दीमक है लगी हर एक आंगन ।

स्वरचित – अभिनव ✍🏻