वक़्त – कविता वन्दना जैन

वक़्त


बदलते हुए वक़्त मे मैंने
लाचार समुन्दर देखे
पतवारों के इशारे और
लहरों के नजारे देखे
नाचती हुई नावें देखी
आँखें रुआंसी और
लब मुस्कुराते देखे
महलों मे बसते वीराने देखे 
रिश्तों की तंग गालियाँ
बचपन की मजबूर
अटखेलियां देखी
कई कहानियां बेतुकी
छोड़ती हुई केंचुकी देखी
विपदा से उजड़े घरोंदे देखे
फूलों की सलाखों के पीछे
दुबके हुए परिंदे देखे
मंदिर मे सोने की दीवारें देखी
बाहर गरीब की कतारें देखी
दूर से हर अपना देखा
जागते हुए सपना देखा |

कविता