अजय महिया छद्म रचनाएँ – 9

लगी है दिल की तुमसे ,मैं तुम्हे ये बात कैसे बताऊं |
कभी याद,कभी ख्वाब सब आते हैं पर तुम्हे कैसे दिखाऊं ||

अज़य महिया

आज मैं बहुत उदास हूँ,लगता है जैसे शरीर से निकल रहे हैं|
आना_जाना तो रीत है दुनिया की,लगता आज कोई खा़श चला गया है ||

अज़य महिया

वो बहोत हंसती थी,हंसाती थी,
रोज कहती थी मुझसे कि यादों मे रखना |
हम बात को खामोशी से कह जाते,
एक रोज बिछुड़े तो बात लबों पर आ गई ||

अज़य महिया

एक अन्ज़ान सी सूरत मेरे दिल मे बसने लगी है |
कभी देखा नहीं उसको मेरी गलियों से गुजरते हुए,
फिर भी लगता है कि बिछुड़े दो पंछी मिलने लगे हैं ||

अज़य महिया

काश आज की रात छोटी हो जाती |
कमबख़्त हमे तुम्हारी याद नहीं आती ||

अज़य महिया

कितनी सीदत से संभालकर रखा था उसकी मोहब्बत को हमने |
आज़ पल भर मे दिले-आइने को चकनाचूर कर दिया उसने ||

अज़य महिया

खामोशी मोहब्बत का अहसास है
इसमें नींद कहाँ होती है |
तुम तो घोड़े बेचकर सो जाते हो
इसमें याद कहाँ होती है ||

अज़य महिया

मैं सबसे कहता फिरता था, के मोहब्बत में ज़ूदाई ही मिलती है |
किसी ने पुछा तो ख्याल आया मैंने मोहब्बत की ही नही है ||

अज़य महिया

ये चाँदनी रातें भी जाने क्या-क्या सितम ढहाती हैं
तुम तो पास रहते नहीं,तुम्हारी यादें बहोत आती हैं

अज़य महिया

दिल की बात ज़ुबां पे आए,ऐसा कोई मंज़र तो चाहिए |
जिसे मैं दिल लगा पाऊँ,ऐसा कोई दिलदार तो चाहिए ||

अज़य महिया

दिल की बात ज़ुबां पे आए , ऐसा कोई मंज़र तो आना चाहिए |
छुपाए रखुं उसकी तस्वीर को ,ऐसी एक तस्वीर तो होनी चाहिए ||

अज़य महिया

सखा,मित्र,दोस्त,दुश्मन,शत्रु किस नाम से पुकारूं तुझे |
तू बता! इस भरी महफिल में,क्या-क्या इल्ज़ाम दूं तुझे ||

अज़य महिया

यूं ही नहीं बनता कोई बादशाह |
ज्ञान की भट्टी में तपना पङता है ||
मंजिल ऐसे ही नहीं मिलती है|
पूरी ताकत से दौङना पङता है ||

अज़य महिया

बेचैन हम अकेले नहीं तुम भी हो
मिटा दो ये फासला पहले-पहल का
ये प्रेम की पतवार तुम भी खे लो
तोङ दो रज्जू प्रेम में पहले फासले की

अज़य महिया
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