शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’ – छद्म रचनाए – 1

वो चंद पल बदल बैठे मेरे ईमान का चेहरा
खड़े थे साथ सब अपने मगर था धुंध का पहरा
हटा जब वो समा कातिल हुआ दीदार जन्नत का
खड़ा था आसमां पर मैं था सर पर जुर्म का पहरा

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

क्यों काली रातों में ही तुम मिलने आते हो
क्यों फटे हुए लित्ते मेरे तुम सिलने आते हो
हंसते हैं तो हंसने दो मेरे लिवाज़ पे इनको
मेरी रूह के जख्मों को क्यों तुम गिनने आते हो।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

चंद सपने थे मेरे वो तोड़ ही डाले
राज जितने थे पुराने खोल ही डाले
दहल जाती थी मेरी रूह जिन लफ्ज़ को सुनकर
तुमने भी वो लफ्ज़ बोल ही डाले।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

आईने में दिखी तस्वीर का एहसास करती है
ये दुनिया खून से इंसान की पहचान करती है
परछाइयों को भी कभी न छोड़ती तन्हा
हर राह पे इंतजामात ये कुछ खास करती है।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

मैं नया सुनाने वाला हूं कविताओं का प्याला हूं
रोजगार का नाम नहीं है सीरत से नाकारा हूं
अजब गजब यहां रंग हैं छाए इन सब में मैं काला हूं
कविता सुनना मेरी दिल से मैं पूरा दिलवाला हूं।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

लिखा जो भी है मैंने वो मेरी सौगात कहता है
हर एक पन्ना मेरे जीवन का ये हालात कहता है
लोग पूछते हैं तुम कहां से हो ये सब लिखते
ये हकीकत से है सब निकला हृदय की बात कहता है।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

रुक जाओगे दो पल तो पतझड़ भी आ जायेगा
नहीं रुकोगे कुछ पल तो सामियाना छाएगा
होगा चारों ओर अंधेरा झींगुर भी चिल्लाएंगे
अगर वो मंजिल पा ली तो सब रोशन खुल जाएंगे।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’

टैलेंट यहां कम दिखता है
जिस्म यहां बस बिकता है
हर तरफ यहां है धूल जमी
नंगा हर एक रिश्ता है।

शुभम शर्मा ‘शंख्यधार’
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