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अज़य कीर्ति छद्म रचनाएँ – 19

अभी थोङा-थोङा बिखर रहा हूँ मैं
अभी थोङा-थोङा निखर रहा हूँ मै
दिले-दवा का जि़क्र कर रहा हूँ मैं
अभी थोङा-थोङा निखर रहा हूँ मैं|

अज़य कीर्ति

हुश्न-ए-आशिकी का जश्न न मना मेरे यार एक दिन सब मिट्टी हो जाएगा|

अज़य कीर्ति

मजदूरी केवल मजबूरी में नही की जाती है बल्कि दूसरों को मालिक बनाने के लिए भी की जाती है|

अज़य कीर्ति

जला दी होली लेकिन
अहम् नहीं जला पाया
बचा लिया प्रह्लाद लेकिन
प्रेम नहीं बचा पाया संभालने की कोशिश की
हज़ारों रिश्ते गुलाल के बहाने……………..
पर जाने क्यों, यूं वो संभल नहीं पाए |

अज़य कीर्ति

जला दी होली पर अहम् नहीं जला पाया
बचा लिया प्रह्लाद पर प्रेम नहीं बचा पाया
हो गई है,अब तो शाम भी ज़िन्दगी की
अब तक ईश्वर को नहीं पहचान पाया | तो अपने आप लग जाएंगे
|

अज़य कीर्ति

स्त्रियों ने हमेशा पुरूषों को दोषी ठहराया है|

अज़य कीर्ति

बात बनी ही कब थी जो इतनी जल्दी बिगङ गई
राह पकङी ही कब थी जो इतनी जल्दी बिछङ गई
चाल चली ही कब थी जो इतनी जल्दी चिलक गई
ज़िन्दगी जी ही कब थी जो इतनी जल्दी निकल गई |

अज़य कीर्ति

किताबों में लिखे शब्दों के भावों को समझने वाला व्यक्ति भगवान और समाज दोनों के नज़दीक़ होता है |

अज़य कीर्ति

मुझमें कवित्व तो नहीं है फिर भी तुक मिला लेता हूँ प्रिये
रात को नींद नहीं आती फिर भी आँख लगा लेता हूँ प्रिये
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अज़य कीर्ति
मै लेखक अजय महिया मेरा जन्म 04 फरवरी 1992 को एक छोटे से गॅाव(उदासर बड़ा त नोहर. जिला हनुमानगढ़ राजस्थान) के किसान परिवार मे हुआ है मै अपने माता-पिता का नाम कविता व संगीत के माध्यम करना चाहता हूं मै अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूं

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