कविता

मन का शोर – शशिकांत सिंह

बिन पूछे सदा जो उड़ता ही चले
एक पल को भी कभी जो ना ढले
है अटल ये टाले से भी ना टले
ना जाने थामे कोई कैसे इसकी डोर
करे बेबस बड़ा ये मन का शोर

राजा रंक हो चाहे साधु संत ही भले
मूर्ख चतुर सबको छलिया ये छले
युगों से रंजिश में इसकी हर इंसान जले
है ढूंढ पाना मुश्किल इसकी छोर
करे विभोर बड़ा ये मन का शोर

माया से इसकी समस्त संसार पले
आनंद की चाह में खूब ये फूले फले
है सुख दुख इसकी धूप और छांव तले
कोई सूरज ना इसका हो कैसे भोर
है चितचोर बड़ा ये मन का शोर

ना पहुंचेगा कहीं उड़ान कितनी भी भरले
व्यर्थ विचारों को रोक मन को वश तू कर ले
शून्य चित्त की अग्न में ही मन का शोर पिघले
लौट आ अब ऐ राही अपने घर की ओर
छिने अनमोल तुझसे ये तेरा मन का शोर

बेहोश सी जिंदगी भला तेरी क्यों ना संभले
झूठी संसारी भोग जब ध्यान योग में बदले
जलेगा दीप तेरे अंदर मिटा अंधियारा घनघोर
मिले मोक्ष हो स्व दर्शन अब मन रब से जोर
पाने को सर्वस्व हटा ले मन का शोर
है विनती हथजोर मिटा ले मन का शोर
                                       – शशि कांत सिंह

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