कविता

भगत, राज, सुखदेव … जिस्म अलग, रूह मगर एक

भगत, राज, सुखदेव … जिस्म अलग, रूह मगर एक ..

तेईस मार्च,
को गिरी थी गाज,
था भगत को खोया,
भस्म हिन्द का ताज ।

एक सच्चा सपूत,
ईश्वर का दूत,
उसकी कुर्बानी,
कोई सके ना भूल ।

था ख़ुद को भूला,
सदा देश ही सूझा,
उस जैसा ना कोई,
बस वतन की पूजा ।

हंसकर था चूमा,
फांसी का झूला,
जब हुआ शहीद,
सूरज भी डूबा ।

फांसी से पहले,
तीनों लोक मिले,
ऐसे थे लिपटे,
जिस्म जैसे जुड़े ।

साथ में थे देव,
राजगुरु सुखदेव,
जन्म चाहे अलग,
अमर पंचतत्व एक ।

ऐसा था साथ,
दे डाली मिसाल,
एक दूजे की ढाल,
साथ हुए कुर्बान ।

नाम भागां वाला,
वो जैसे शिवाला,
निर्णायक मोड़,
बाग जलियांवाला ।

ऐसा था जुनून,
सवार सिर पे ख़ून,
देख लाला जी की हत्या,
प्रण – “बदला ख़ुद” ।

चटा डाली धूल,
बज गया बिगुल,
हुए फिरंगी भौचक्के,
नींदें गई थी उड़ ।

वक़्त बदल रहा था,
दिन दिख सा रहा था,
क्या हुआ ना जाने !
धुंध लग गई छाने ।

गद्दारी बदौलत,
लुटी हिन्द की शोहरत,
अपने गए बिक,
चुकाई देश ने क़ीमत ।

क्रांति की आंधी,
अनुचित मानते थे गांधी,
चाह सकते तो वे,
रोक सकते थे फांसी ।

सज़ा बिन अपराध,
वैसे कानून की बात !
किसकी थी साज़िश ?
किसने की घात ?

फांसी पश्चात,
आए फिरंगी ना बाज़,
किए छिन्न-भिन्न शरीर,
तड़पा रुआंसू आकाश ।

ऐसे बलिदानी,
थी भरी जवानी,
बांधे सिर पे कफ़न,
है नमन पुष्पांजलि ।

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

National Martyrs Memorial Hussainiwala closeup
अभिनव कुमार एक साधारण छवि वाले व्यक्ति हैं । वे विधायी कानून में स्नातक हैं और कंपनी सचिव हैं । अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर उन्हें कविताएं लिखने का शौक है या यूं कहें कि जुनून सा है ! सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे इससे तनाव मुक्त महसूस करते…

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