कविता

प्रेम है, बसंत हैं।

प्रेम है, बसंत हैं।

राह तकती है पंखुड़ियां
तितलियों की
जानती है वे बैठ बालियों पर
पराग निचोड़ उड़ जाएंगी
फिर भी जाने क्यों
उन्हें आस रहता सदा
वे आ कर फूलो बढ़ता बोझ
सोख़ बसंत खिलाएंगी।

नीली पाखी चहकते-मटकते
आ बैठी फिर ठूंठ पर
तिनका दबाए नज़रें बचाएं
दो‌ साखो का बीच कहीं
ठहर जाने को एक छत बनाएं
ठूंठा पेड़ सूखा पड़ा,
बेजान हर सावन रहा
उन चिड़ईओ के बस जाने से
बसंत बयार बहाएंगी।

माघ भी अलसाई जान
पुरवाई से उलझते बाल
आंखें को तेज भींच मिचकाएं
ठिठुरन के बीच कहीं
आसमान की ओर टकटकी लगाए
फाल्गुन वहीं आता होता
सरसों पर लिपटा पड़ा
हल्दिया देह रंग जाने से
बसंत मन समाएगी।

शोख हवाओं का आना
इठलाती हुई रह जाना
प्रेम ही रहा होगा
एक का आना, दूजे समाना
पतझड़ का अंत है,
बसंत हैं।

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