कविता

तेरे शहर की हवाओं का रूख देखा है हमने

तेरे शहर की हवाओं का रूख देखा है हमने
हर गली-मौहल्ले की दिवारों को सुना है हमने ।।

कह रही‌ दर्द-ए-दास्तां हर जुर्म‌ की वो दिवारें
मा-बाप को घर से निकालते देखा है हमने ।।

घर से निकाला !‌खैर ,कोई बात की बात नहीं
बेजुबान पक्षियों को भी नही छोड़ा तुमने तो।।

अरे !‌जिस तरहा बेजुबानों को बेमौत‌ मार दिया
उसी तराहा, तेरे शहर को मरते देखा है हमने ।।

अपने सुख-चैन के लिए क्या नहीं किया तुमने
जीवनदाता पेड़-पौधों को भी नही छोड़ा तुमने ।।

घोर अन्याय सहन करके जैसे रोई है धरणी
उसी‌ तरहा तेरे शहर की चीखें सुनी है हमने ।।

किसी दिलो-द्वार की नेकी से बन्दगी कर बैठे थे
फासले ना हो इनसे कभी यही सोच कर बैठे थे ।।

जिन्दगी अज़ीब दास्तां हैं हम जैसे मुसाफिरों की
मौत से ‘अजय’ होकर ये दास्तां लिखी है हमने ।।

वर्षों से तांडव किया प्रकृति ‌को नष्ट करने का
आज तेरे शहर मे मौत का तांडव देखा‌ है‌ हमने ।।

आज‌‌ तेरे‌ शहर मे मौत का तांडव देखा है हमने‌
तेरे शहर की हवाओं का रूख देखा है हमने ।।

मै लेखक अजय महिया मेरा जन्म 04 फरवरी 1992 को एक छोटे से गॅाव(उदासर बड़ा त नोहर. जिला हनुमानगढ़ राजस्थान) के किसान परिवार मे हुआ है मै अपने माता-पिता का नाम कविता व संगीत के माध्यम करना चाहता हूं मै अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूं

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