कवितादेशख़ास

आज़ादी की आपबीती

आज़ादी की आपबीती

‘आज़ादी’ अब ७३ की हो गई,
अपनों की राह तकते हुए थककर सो गई,
माना थोड़ी सी बेचारी बूढ़ी हो गई,
अभी तो मिली थी, कहीं फ़िर तो नहीं खो गई ! 4

अपनी किस्मत को कोस रही थी,
मन को अपने मसोस रही थी,
ख़ुद को ख़ुद में खोज रही थी,
दिल पे रक्खे बोझ हुई थी । 8

“भारत ही भला क्यूँ मिला ?”
इस बात का था उसे गिला,
ना कद्र मिली, ना ऐतबार मिला,
नया नहीं है ये सिलसिला ।। 12

हो रहा था उसे अफ़सोस,
और साथ में दोगुना रोष,
पहले था सच्चा संतोष,
अब मक्कारी, झूठ और दोष ।। 16

मात पिता उसे कहते थे,
पहले देशभक्त रहते थे,
देश के लिए मर मिटते थे,
पीछे नहीं कभी हटते थे ।। 20

वीर जवान भगत सिंह,
साफ़ था वो निर्मल शिवलिंग,
निडर साहसी ज़िंदादिल,
त्यागे प्राण देश की खातिर ।। 24

अंग्रेजों के दांत किये खट्टे,
चंद्रशेखर, राजगुरु भी थे हटके,
शेर चट्टान जिए हरदम डटके,
फांसी चढ़े वे हँसते हँसते ।। 28

लड़ी मर्दानी झांसी की रानी,
उसकी अजब ही थी कहानी,
याद कराई फिरंगियों को नानी,
वो आज़ादी की दीवानी ।। 32

सुभाष चंद्र भी नहीं थे पीछे,
अंग्रेज़ थे उनके पैरों के नीचे,
उनकी बदौलत आज बगीचे,
अपने लहू से गुलशन सींचे ।। 36

वीर सावरकर, सरदार पटेल,
सच्चे सपूत गए कई बार जेल,
अंग्रेजों को दिया धकेल,
ब्रिटिश राज का ख़त्म किया खेल ।। 40

आए नेहरू, आए गांधी,
दोनों ने एक आस थी बांधी,
अहिंसा की चली तेज़ थी आंधी,
जिन्ना, चीन फिर हद क्यूँ लाँघी ? 44

छोड़ गए वे ऐसी पहेली,
कभी बन्द कभी खुली हथेली,
ऐसी राजनीति क्यूँ थी खेली ?
महानता किसी की किसी ने लेली ! 48

अव्वल थे वे प्रधान मंत्री,
कई फैसलों से गंगा मैली,
तबकी गलती अब विषैली,
वंशवाद से महामारी फैली ।। 52

हिंदू चीनी भाई भाई !
ये कैसी देदी थी दुहाई ?
ख़ुद ही अपनी शामत बुलाई,
बड़ी बुरी थी मुँह की खाई ।। 56

भुगत रहा अब पूरा देश,
क्या मिसाल क्या थे संदेश ?
जाने कितने बदले भेस !
सत्ता से ना कभी परहेज़ ।। 60

ऐसी लगा दी तब से दीमक,
जल नहीं पाए लाखों दीपक,
अपनों पे भरपूर शक,
दूजे को दिया पूरा हक ।। 64

कुर्बानी की ये थी कीमत ?
देश के टुकड़े था क्या मकसद ?
खोदी गहरी खाई व दलदल,
गद्दारी है क्या ये शायद ? 68

सत्ता का नशा बड़ा ख़राब,
अपने लिए बस होते ख़्वाब,
देश को दे दिए गहरे घाव,
उल्टे बहाव में चलाई नाव ।। 72

धर्म के नाम पर सबकुछ बांटा,
नंगे पांव थे, उस पर कांटा,
पहले दंगे, फ़िर सन्नाटा,
थाली में छेद कर उसको काटा ।। 76

भुखमरी इतनी नसीब ना आटा,
नीयत जो होती तो हर पेट खाता,
ऐसा मगर नहीं था इरादा,
बाग़ी बन गया सीधा सादा ।। 80

नेता अक्सर होते क्यूँ भ्रष्ट ?
क्यूँ देते जनता को कष्ट ?
अपने देश को करते नष्ट,
छल फ़रेब में हों अभ्यस्त ।। 84

जितना अंग्रेजों ने खाया,
नेता ने किया दोगुना सफ़ाया,
जो लगा हाथ वो भी हथियाया,
दैत्य कण कण में समाया ।। 88

दीन ईमान ये न सकें सहेज,
बस चले इनका दें देश को बेच,
इनसे अच्छे तो थे अंग्रेज़,
सूद समेत लें लें ये दहेज ।। 92

इन नेताओं के ज़मीर हैं सोये,
जाने कितने शहीद हैं खोये !
ये घड़ियाल के आंसू रोये,
देश संवारना इनसे ना होए ।। 96

ये सब सोच रोये आज़ादी,
छलनी हो रही उसकी छाती,
है वो अकेली ना कोई साथी,
हो रही नम और वो जज़्बाती ।। 100

आज के युग से है परेशान,
कल तक था जिसपर अभिमान,
आज हैं भूले, किया अनजान,
आज़ादी गुमसुम व वीरान ।। 104

कई सवालों की है भरमार,
आज़ादी बेबस, हुई लाचार,
क्या देशभक्तों की कुर्बानी बेकार ?
क्यों धरा ना उपजे अब ऐसे किरदार ? 108

क्या मिली आज़ादी खादी से ?
या मिली शूरवीरों की छाती से ?
कोई करे काम, कोई ख्याति ले !
समझो मोल इस माटी से ।। 112

क्या गुम हो गए अब अरमान ?
क्या इंसां बन गए अब शैतान ?
क्या बची सिर्फ़ अब झूठी शान ?
क्या शुरू हो गई अब है ढलान ? 116

क्या राष्ट्रभक्ति अब हो गई खोखली ?
क्या आदतें सबकी हो गईं मनचली ?
क्यूँ ज़रूरी है देनी किसी की बली ?
क्यूँ प्रेम से तब्दील अब लालच की गली ? 120

क्या विस्मृत हो गई अब वो शहादत ?
क्यूँ छूट गई अब अहिंसा की आदत ?
नींव जो कच्ची तो डहे इमारत,
गुलामी ठीक थी, ख़ुद पर लानत ! 124

कहां गया वो जोश का जज़्बा ?
एक थे सब चाहे शहर या कस्बा,
क्यूँ खून अब पानी से सस्ता ?
देश जा रहा अंदर धंसता ।। 128

सिर्फ़ 15 अगस्त पे आती याद,
बाक़ी दिन रहे जैसे अनाथ,
आज़ादी की यही औकात ?
जम गए हैं क्या जज़्बात ? 132

कितने मतलब, कितना प्रयोजन ?
क्या कोई सीमा या है सरहद ?
क्यूँ इतना लंबा हुआ है पतझड़ ?
भाव कहां हो गए हैं ओझल ? 136

माना बहुत है फ़ैली मलिनता,
कई शख़्स पर भी हैं चुनिंदा,
उन सज्जनों को इसकी चिंता,
उनके सहारे ही ये ज़िंदा ।। 140

घाटी भी अब हुई आज़ाद,
त्रस्त थी सहकर आतंकवाद,
हिन्द से उसने मिलाए हाथ,
उम्मीद कि सुधरेंगे हालात ।। 144

नामुनकिन हुआ अब है संभव,
थोड़े ज़ख्म तो गए हैं भर,
प्रगति जागकर रही अब चल,
दुर्जन भयभीत, करें हलचल ।। 148

पड़ोसी देशों की देख मजाल,
सेना ने ली हाथों में कमान,
बांका ना हो सके कोई बाल,
देखके दुश्मन हो रहा हैरान ।। 152

सैनिक ही असली राष्ट्रभक्त,
देश के साथ खड़ा हर वक्त,
वैरी मार करे अभिव्यक्त,
ये आधार, ये ही है दरख़्त ।। 156

अब भी समय है, जाएं सम्भल,
आज़ादी हर चीज़ का हल,
इसके बिन हो ना एक पल,
भाईचारे में बहूत है बल ।। 160

ज़हन में हो ये दिन और रात,
तब ही बन सकती कुछ बात,
दुश्मन लगाए बैठा घात,
बिखरे हम, तो फ़िर बर्बाद ।। 164

आज़ादी अमूल्य, बड़े महंगे दाम,
इसके बिन ना चल सके है काम,
बनें परिपक्व, लें सबको थाम,
वरना भुगतेंगे अंजाम ।। 168

सावधानी से ही हादसा टला,
नहीं तो बस फ़िर हाथ मला,
देशभक्ति का नहीं मुकाबला,
हमारे हाथ में ही है फैसला ।। 172

थी ‘आज़ादी’ की ये आपबीती,
किये संघर्ष, तभी जली अंगीठी,
श्रम से मिली ये, ऐसे ना खरीदी,
बलिदानों के बल पर थी जीती ।। 176

जो जाने महत्व व इसका अहसास,
एक अलग अनुभव, कुछ अलग ही बात,
क़दर करोगे तो सदा है साथ,
नहीं करो तो फ़िर अलगाव ।। 180

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

अभिनव कुमार एक साधारण छवि वाले व्यक्ति हैं । वे विधायी कानून में स्नातक हैं और कंपनी सचिव हैं । अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर उन्हें कविताएं लिखने का शौक है या यूं कहें कि जुनून सा है ! सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे इससे तनाव मुक्त महसूस करते…

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