कविता

फिर भी सब हरा है

शब-ए-घोर अंधियारे में ,आज करूणा-कंठ भरे हैं
कठोर हृदय मृदुल हुआ,सब आँखों में नीर झरे है
दशा देखें धनवान् की,या निर्धन के पास ये धरा है
असंख्य तकलीफें हैं जीवन मे,फिर भी सब हरा है

कहीं भूखे सोते लोग,कहीं अनाज का ढेर पङा है
कहीं सुख की सेज सजी है,कहीं दु:खों का डेरा है
जुल्म हुआ जुल्मी पर या जुल्मों ने सबको घेरा है
असंख्य तकलीफें हैं जीवन मे,फिर भी सब हरा है

कहीं महलों में बठै,कही झोपङी के लिए तरसे हैं
कहीं घर तक हैं सङकें,कहीं रास्तों के लिए लङे हैं
महलों ने रास्ते रोके या रास्ते ने महल उकेरा है
असंख्य तकलीफें है जीवन मे,फिर भी सब हरा है

दर्द होता होगा तुमको भी,जब दर्द देता होगा कोई
कैसे निकली होगी उनकी जवानी,कितना रोया होगा कोई
तकलीफों ने मनु को घेरा या मनु ने तकलीफों को घेरा है
असंख्य तकलीफें हैं जीवन में,फिर भी सब हरा है

मै लेखक अजय महिया मेरा जन्म 04 फरवरी 1992 को एक छोटे से गॅाव(उदासर बड़ा त नोहर. जिला हनुमानगढ़ राजस्थान) के किसान परिवार मे हुआ है मै अपने माता-पिता का नाम कविता व संगीत के माध्यम करना चाहता हूं मै अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूं

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