लेखख़ास

इसके पहले की हो जाएँ -बैक टू लाइफ़ !

इसके पहले की हो जाएँ -बैक टू लाइफ़ !

साइकल ,जब एक अनजाने घाट पर बिन पैडल मारे सरकने लगती है, तो मेहनत ज़रूर कम हो जाती है , लेकिन एक वैकल्पिक ख़तरे का एहसास , उस आरामदेही सफ़र का मज़ा नहीं लेने देता ।
ठीक उसी तरह जब जीवन के सफ़र में कोरोना जैसी महामारी आ जाए तो घरों में रह कर भी चैन नहीं मिल पाता। आराम भी हराम हो जाता है।


ख़ैर, ये घबराहट के बादल भी लगभग छँट जाएँगे।


नव जीवन की शुरुआत कैसे हो , हमारे जीवन में ये तूफ़ान हमको जो भी कुछ सिखा कर जाएगा , हमें उन शिक्षाओं को किस  तरह से अमल में लाना है, यह विचारणीय है ।
आइये इस अवसर का भरपूर लाभ लें…

याद रखें जीवन अनमोलता :-
जब आते जाते बिना हेल्मेट सीट बेल्ट के हम बेख़ौफ़ सड़कों पर घूमते हैं, तो सोचिए , आपकी जान बचाने के लिए पूरी कायनात रुक गई थी, आपका जीवन आपके अपने लिए , परिवार, समाज ही नहीं, देश के लिए भी कितना आवश्यक है, इसका बारे में बारबार सोचिए , क्योंकि जीवन सच में अनमोल है, साधन संसाधन, राशन , औषधि , विज्ञान, आविष्कार सब तभी तक उपयोगी हैं जब तक जीवन है।

जिन छोटी ख़ुशियों को पाने की दौड़ है , वो जान से क़ीमती भला कैसे हो सकती हैं? ऐसा सोचने वाले अपनी प्राथमिकता को बेहतर समझ कर अपने निर्णय शक्ती और सुलझे विचारों से अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं।

बचत की उपयोगिता :-
अमेरिकी लोग बहुत कमाई करते हैं , dollors में कमाते हैं, और दोनो हाथों से ख़र्च कर डालते हैं, hi-fi लाइफ़ जीते हैं , कल की चिंता नहीं करते… कल तक आप ऐसी पाश्चात्य विचारधारा को मस्त मौला कह कर impress हो जाया करते थे, लेकिन अब वह खर्चीली विचारधारा के लोग आपको मूर्ख लगने लगेंगे, क्योंकि ऐसे कई लोग आज अमेरिका में कंगाल हो गए, वहीं दूसरी ओर  भारतीय विचारधारा , जिसमें हर बार बचत पर ध्यान दिया जाता है, वो आपको समझदारी प्रतीत होगी ।

ख़ासकर आज की युवा पीढ़ी जो कि पश्चिमी मूल्यों को जीवन में अपनाने के लिए आतुर रहती है , उनको अब अपने माँबाप अब समझदार और दूर दृष्टि वाले लगेंगे, जो कि वैचारिक घर- वापसी की पृष्ठभूमि बन सकता है ।

मेरा देश – मेरा गौरव :-
बहुमूल्य सांस्कृतिक विरासतों के अलावा भी इस देश में बहुत कुछ है , किस तरह सरकारी विभाग अपनी कार्यक्षमता का परिचय देते हैं, कैसे मेरे देश का हर जागरूक नागरिक अपने आस पास के नागरिकों को बचाने के लिए एकजुट होकर काम करता है ।

याद रखें , यदि जो सरकारें अपने नागरिकों का मुश्किल समय में सही निर्णय लेकर अपनी जागरूकता का उदाहरण पेश नहीं कर पाती हैं , उस देश के नागरिक भी स्वयं अपने को हीन अनुभव करने लगते हैं, और देश, जो अपनी जनता को बाहरी और आंतरिक ख़तरों और बीमारीयों से सुरक्षित रख पाता है, आख़िर बोलबाला भी हर कहीं उस देश का ही होता है। लॉकडाउन के निर्णय और उसके कड़क पालन से अभी तक तो ये मान भारत को प्राप्त हो रहा है , आगे भी ऐसा चले तो क्या बात है ..

आदमी एक सामाजिक प्राणी:-
धर्म अर्थ काम मोक्ष का जीवन में निर्वाह स्वयं को करना सहज हो सकता है , किंतु ये कार्य स्वयं सिद्ध नहीं होती । हमारी दैनिक ज़िंदगी में हमको कितने अलग अलग तरह के लोगों, कार्यकर्ताओं और वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है , ये सोचने और गहराई से इस तथ्य को समझने का समय शायद पहले कभी ना मिला हो।

हम अकेले कुछ भी नहीं , हमें स्नेह के लिए परिवार,  कमाने के लिए व्यापार, मन लगाने के लिए दोस्त-यार, आने जाने के लिए कार , आराधना के लिए मंदिर, इलाज के लिए डॉक्टर , घर काम के लिए नोकर-चाकर, अनाज उगाने के लिए किसान ,रक्षा के लिए जवान,  सेवा में तत्पर पूरा सरकारी तंत्र .. इन सभी की कितनी ज़रूरत है , पराधीनता मानो हमारा पर्यायवाची रहा , किंतु दंभ के चलते , कभी अपना अधूरापन पूरा करने वालों के हित में कभी सोचा भी नहीं , समय सोचने का और कमियों को पूरा करने का , जहाँ तक हो स्वावलंबी बनने का, अब आया है, आओ निखर कर दुनिया के सामने आएँ ..

आकांक्षाओं की निरर्थकता :-
दुनिया भर के मोटिवेशनल स्पीकर्ज़ ने आपको बहुत सिखाया की अंदर की आग जलाओ , मंज़िल के लिए दौड़ो , प्रयास करो , रुको नहीं । जो चाहते हो ज़रूर मिलेगा आदि आदि .. कहीं न कहीं इस पूरे एजुकेशन सिस्टम ने ये नहीं सिखाया की परिस्थितियाँ जब आकांक्षाओं के विपरीत हो जाए तो सहज कैसे रहा जा सकता है ।

क्यों कई बार अंदर की ज्वाला और बाहर में कुछ नहीं कर पाने की मजबूरी हमें सुस्त, लाचार और हीन अनुभव करा देती है। कभी बाहर के अनुरूप आंतरिक परिवर्तन करने में भलाई है , क्योंकि इंसान बाहर से तो आख़िर विधि के द्वारा संचालित एक खिलौना मात्र है , अंतर्मन अर्थात स्वयं निज आत्मा का ही स्वामी है। जिसे हम अपना स्वरूप मानते ही नहीं ! । इस सरल सत्य से रु-ब-रू होने के लिए ध्यान मार्ग से अंतर्रदीप जलाने का सार्थक समय अभी है।

स्वस्थ जीवन का आधार – शाकाहार:-

  “एक प्राणी – दूसरे प्राणी को मारकर खाता है और अपना पेट भरता है “
पहली बार में यह वाक्य पढ़कर आपको या तो कोई जंगल की याद आएगी , या फिर आदि मानव की ओर इशारा किया लगेगा।


लेकिन ये मांसाहार का चलन आज के सभ्य समाज में भी सभी जगह हो रहा है .. जो खाद्य नहीं , उसको खा लेना,परम्पराओं की दुर्गति है।अपनी जान बचाने के लिए महीनो घरों में दुबक कर बैठने वाला मानव किस तरह अपनी जीभ की लोलुपता के वश होकर किसी जीवित प्राणी को उसके घर से उठाकर , उसके परिवार को उजाड़कर , हँसते मुस्कुराते हुए अपनी दाढ़ में दबा लेता है?
आज का कोरोना भी इस ही मांसाहार की अंधी दौड़ का ही दुष्परिणामों में से एक है । भारतीय संस्कृति में मांसाहार- रोगों की जड़ , उग्र और व्यग्रता का कारण, हिंसक-क्रूर मानसिकता का मूल और प्रकृति के साथ विश्वासघात माना गया है ।


अपना जीवन काल में ये जानवर मनो अनाज और गेलनों पानी पीते हैं जो की एक दो लोगों की एक बार के भोजन बन कर समर्पित कर दिए जाते हैं ।चमड़ा खेंच कर बूट बना लिए जाते हैं। नवजात बछड़े को ज़िंदा उबाल लिया जाता है.. ये अन्याय आख़िर कब तक सह सकती थी प्रकृति । इतिहास गवाह है , जब जब मनुष्य ने प्रकृति के समीकरण को बिगाड़ने की साज़िश रची है , उसके प्रकोप से कोई नहीं बचा , यही हाल रहा तो , आने वाली पीढ़ियाँ भी नहीं बच सकेंगी ।ये बात समझना , समय की माँग है ।

अमीरी /ग़रीबी या मन का वहम? :-


धन आदि से अपने आपको महान और बड़ा मानने वालों को पूछा जाए की आप धनवान होकर कोरोना से पीड़ित होना चाहेंगे,  या निर्धन होकर स्वस्थ जीवन जीना चाहेंगे?
निर्धन होना एक बार मंज़ूर है, कोरोना नहीं चाहिये ..एक स्वर में यही जवाब है न ?

धन की उपयोगिता मर्यादित है , उसे जीवन की संरचना करने का ज़रिया और भाग्य रेखा का अंतिम मापदंड निर्धारित नहीं किया जा सकता। महामारी, वो भी ऐसी जिसमें ग़रीब अमीर एक पायदान पर हों, निश्चित एक बहुत बड़ा संदेश देती है।तरक़्क़ी की मिसाल माने जाने वाले मुल्क , अपने नागरिकों को दफ़नाने की बेहतर जगह की जुगाड़ लगा रहे हैं , शायद इससे अधिक अब उनके हाथ में नहीं रहा । तो किसके हाथ है? ज़रूर ये ही प्रारब्ध है। इसका विश्वास करें, कुछ अधिक परेशान होने से अच्छा हैं, प्रयास अपनी ओर से करें और बाक़ी ‘उसपर’ छोड़ दें ।

<strong>लाइफ़ कोच, लेखक एवं स्पीकर</strong> <div dir="ltr">लेखक एक उच्च शिक्षित और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से आते हैं ।</div> <div dir="ltr">परिवार में वैचारिक समृद्धि से उनके मौलिक विचारों को बल मिला। लेखक…

Related Posts

error: Content is protected !!