प्रेम एक स्वछंद धारा
प्रेम एक स्वछंद धारा
एक प्रेम भरी दृष्टि और
दो मीठे स्नेहिल बोलों
से बना सम्पूर्ण भ्रह्मांड सा प्रेम
कैसे समाएगा मिलन और
बिछुड़न के छोटे से गांव में
जहाँ खड़े रहते हैं अभिलाषाओं और
अपेक्षाओं के द्वारपाल
जो रात-दिन पहरा देकर
वहन करवाते हैं वचन निर्वहन का
ये आज्ञाकारी सिपाही
प्रेम के इस गाँव में प्रवेश करते ही
अपनी वाणी की तीखी तलवारों,
अपेक्षाओं के तीरों और
बाध्यता के भालों से
वार करके घायल कर देते हैं प्रेमियों को
प्रेम तो स्वछंद धारा है
एक प्रारब्ध बंधन,निश्छल,निर्मल …
जैसे एक चाँद और उसका ध्रुव तारा है
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