कविता

शिकारा फिल्म – अभिनव कुमार

शिकारा

चलचित्र शिकारा,
है पानी खारा,
किस और इशारा ?
निर्देशक द्वारा !

जो दर्द था सारा,
उसे कहां उतारा ?
जो चड़ा था पारा,
दिया कुछ और नारा ।

ना था हत्यारा,
ना कोई अंगारा,
बस नायक सितारा,
उसको ही निखारा !

लहू लाल चौबारा,
ज़िंदा था मारा,
ना कोई चारा,
था विलुप्त नज़ारा ।

वो रक्त फव्वारा,
वो जो दुखियारा,
वो कातिल जाड़ा,
छलनी कर डाला ।

निर्देशक निर्माता,
रखता ज़रा हौंसला,
सारा दृश्य दोगला,
उद्देश्य खोखला ।

दिखती सच्चाई,
कम होती खाई,
प्रेम कथा दिखाई,
कहां पंडित भाई ?

वो हिन्दू पंडित,
हुआ उनपर बीत,
तुझसे थी उम्मीद,
ना कुछ पर दर्शित ।

माना की हिम्मत,
दिखाई तूने सरहद,
जो होती असलियत,
दिल भावुक, गदगद ।

तू देता सीख,
जब दिखती चीख,
क्या गया था बिक ?
झूठी तारीफ़ ।

सब हुआ कमर्शियल,
है थल या दलदल ?
आंखों में ना जल,
दिल सख़्त अचल ।

भावनाओं से खेला,
क्या पता क्या झेला ?
था लाशों का मेला,
वो हिन्दू अकेला ।

क्या तुझको सूझी ?
क्यों बनाई मूवी ?
सब शर्म है डूबी,
क्या थी बोल खूबी ?

जो हुआ अन्याय,
जो हुई हत्याएं,
दहशत के साए,
कुछ भी ना दिखाए !

क्या गया है मिल ?
धुंधली तस्वीर,
दिया और ही चीर,
धंस गया ज़मीर ।

पर्दे पे रोमांस,
किया सबकुछ नास,
तुझसे ना थी आस,
कहीं और प्रयास ।

हरे और किए घाव,
किया तेज़ बहाव,
डुबाई रुकी हुई नाव,
काट डाले पांव ।

बस पैसे की खातिर ?
या कुछ और साज़िश ?
धमकी हुई पेश ?
क्या दांव पेंच ?

दिखती आपबीती,
पठकथा और नीति,
फ़िर जंग थी जीती,
होती स्वकृति ।

ये ज़हर का घूंट,
पड़वा दी फुट
बजाए रिश्ते अटूट,
ये कैसी लूट ?

खड़े हो जाएं रोंगटे,
सुन जज़्बात गौर से,
नरभक्षी हर छोर थे,
चील कौवे पुरजोर थे ।

है याद वो सारा,
वो रात के बारह,
कश्मीर निकाला,
छीना था निवाला ।

आदेश हुआ पेश,
या बदल ले भेस,
या छोड़ फ़िर देश,
ना समय था शेष ।

बार बार ऐलान,
कर रहे थे हैवान,
चुन धर्म या जान,
या भुगत अंजाम ।

ज़मीन गई फिसल,
आसमां जाए निगल,
डर हर एक पल,
थी बस हलचल ।

गोलियों की गूंज,
कुछ रहा ना सूझ,
सूरज गया डूब,
कुछ रहा था चुभ ।

ऐसे हालात,
दिन कटे ना रात,
जहां देखो वहीं घात,
सहमे जज़्बात ।

खुलेआम रहे भून,
पानी ना खून,
चुप मौन कानून,
निद्रा में लुप्त ।

चारों ओर था शोर,
कश्मीर तू छोड़,
अब यहां नहीं और,
मैं था मजबूर !

जीता या मरता ?
क्या सोचूं करता ?
ना धर्म बदलता,
खंजर फिर चलता ।

जहां देखो आग,
लोग रहे थे भाग,
लगे स्वर्ग पे दाग़,
कौन ज़िम्मेदार ?

तब कहां थे रक्षक ?
कहां गुम थे शासक ?
आज मांगें हक़,
तब थी धकधक ।

तब आते साथ,
होते संवाद,
रखते तब बात,
ना फैलती आग ।

जा समझ ये भाव,
ना हिंसा फैलाओ,
आक्रोश भगाओ,
भाई चारा जगाओ ।

तू देता संदेश,
व मिसाल पेश,
जिसे देखकर देश,
देता आशीष ।

जो हुए अन्याय,
जो खून बहाए,
ज़ाया ना जाएं,
ना भरें अब आहें ।

किस बात की नफ़रत ?
किस बात ही ज़िल्लत ?
क्यों रहना घुटकर ?
सबकी ही है छत ।

तू देता सबक,
इस माध्यम तलक,
हिंसा है नरक,
लो अहिंसा चख ।

ना हो कतलेआम,
जागरुक आवाम,
जो हो ये काम,
कड़ी सजा परिणाम ।

मर्यादा का पालन,
तप और अनुशासन,
कानून सुशासन,
बिफरे ना कोई जन ।

सब एक समान,
सब हैं इंसान,
सब में ही जान,
स्वतंत्र जहान ।

ना कोई आहत,
ना कोई बगावत,
है जैसे लानत,
गर हो ना देश हित…
गर हो ना देश हित…

स्वरचित – अभिनव ✍🏻

अभिनव कुमार एक साधारण छवि वाले व्यक्ति हैं । वे विधायी कानून में स्नातक हैं और कंपनी सचिव हैं । अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर उन्हें कविताएं लिखने का शौक है या यूं कहें कि जुनून सा है ! सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे इससे तनाव मुक्त महसूस करते…

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