कविता

विरह – कविता -शिल्पी प्रसाद

तुम जान लो,
मैं जानती हूं
ये बातों की लड़ी
जो स्वाभाविक आज
मेरी जीवन की
शैली हो गई है,
यह आदत एक रोज़
हवा में घुल
पिघल जाएगी
और, पीछे रह जाएगी
मेरी पीड़ा,
तुम बिन मिले
विरह मिल जाएगा मुझे।

~शिल्पी

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