कविता

उसका आख़िर था क्या कसूर ?

उसका आख़िर था क्या कसूर ?

बड़ी अजब कहानी है,
पग पग पे बेईमानी है,
रिया है, पिठानी है,
माहिर है, सयानी है ।

नीरज है, केशव है,
नौटंकी में पूरा दम है,
दीपेश भी कहाँ कम है !
अच्छा खासा अनुभव है ।

शोविक रजत भी हैं किरदार,
गांजा चरस चले खुलेआम,
आँचल किया दागी बदनाम,
कैसी परवरिश इंद्रजीत जनाब !

साल से बात नहीं करी है,
मारी मगर सुपर एंट्री है,
संदीप बना चौधरी है,
कुछ ना कुछ तो गड़बड़ी है ।

थ्रिलर है, सस्पेंस है,
लिव इन है, रोमांस है,
ट्विस्ट है, रोमांच है,
मिस्ट्री वेट एंड वॉच है ।

मंझा हर कलाकार है,
झूठा है, मक्कार है,
फ़रेबी है, गद्दार है,
सारी हदें ही पार हैं ।

ना जाने कौन क़ातिल है !
जो है बड़ा ही शातिर है,
वो घूमे लिए दस सिर है,
दागी धुंधली तस्वीर है ।

पूछताछ अब तक हुई है जिससे,
हर पल हैं नित् नए ही किस्से,
चीलों के बंट चुके हैं हिस्से,
घड़ियाल कहाँ भला रहेंगे पीछे ।

अहम भूमिका में है सरकार,
सिस्टम रोए दहाड़ें मार,
पुलिस बेचारी बेबस लाचार,
दोनों तरफ़ से खाए फ़टकार ।

खूँटे से जैसे है बंधी हुई,
या जैसे आई लुगाई नई,
ख़ुद पर करदी शक की सुई,
पुलिस अंजान, बनी छुई-मुई ।

भरे पड़े हैं खलनायक,
दगाबाज़ संदिग्ध, है शक,
देख हो रही घबराहट,
रौंगटे खड़े जब हो आहट ।

खेले हुए खिलाड़ी हैं,
शर्म ना बिल्कुल आ रही है,
कोरी झूठी गवाही है,
चोर चोर मौसेरे भाई हैं ।

ज़मीर बेचकर खा गए हैं,
ज़मीं पे शैतां आ गए हैं,
काले बादल छा गए हैं,
बहुतेरे सबूत मिटा गए हैं ।

सोने की मुर्गी डाली मार,
डुबोदी नौका बीच मझधार,
क्या मंशा, क्यूँ इतना ग़ुबार ?
ऐसा दुष्कृत्य, ना कभी सुधार ।

कड़ियां नूतन जुड़ रहीं रोज़,
जल ख़ातिर रहे धरा को खोद,
थाली में छेद बड़ी निंदनीय सोच,
कत्लेआम हो रहा निःसंकोच !

पता नहीं क्या कथा का अंत !
पल पल बदल रहा क्लाइमैक्स,
सुलझते सुलझते जाए गुत्थी उलझ,
ख़ून खौल रहा अब नस नस ।

कर ना सको कभी ऐसी कल्पना,
नायक का ऐसा बुरा हश्र करा,
तड़पाकर करी नृशंस हत्या,
काट दिया ख़ुद का ही तना ।

जीवंत मनमोहक था वो बुलबुला,
ज़िंदादिली की राह जो चला,
बीच रास्ते ही उसे छला,
खिले बिन फ़ूल ही गया मुरझा ।

विश्वासघात की ऐसी मिसाल,
जो भी सुने, हो जाए बेहाल,
कितने ना जाने खड़े सवाल !
चक्रव्यूह में फँस गया सुशांत ।

दिल्लगी का क्या यही सिला ?
दोस्त भी प्रेमिका से मिला,
साज़िश षड्यंत्र का था सिलसिला,
रोए धरा, नभ भी है हिला ।

दिखे ऊपर से सजी चकाचोंध,
अंदर से खोखली, केवल धौंस,
लूटमार ज़ुल्म अवसाद रोष,
मायानगरी बस देती रोंद ।

इस वृत्तांत से मिलती शिक्षा,
मत लो निर्णय ख़ाली दिल का,
मत करो दिल कहीं कुछ भी हल्का,
नहीं भरोसा किसी भी पल का ।

इंसां परखो ठोक बजाके,
संभलो कुछ तो ठोकर खाके,
दिखते साफ़ पर दिल बड़े काले,
ग़ौर से देखो बहुत हैं जाले ।

मुँह के मीठे, अंदर कड़वे,
मतलब जब तक चाटें तलवे,
काम सिद्ध, फ़िर खंज़र निकले,
कितने ना जाने भेस ये बदलें ।

दोस्त दिलरुबा सब आजमाओ,
ऐसे बहकावे में मत आओ,
पैसे को मत बीच में लाओ,
किसी को सिर पर यूं ना बिठाओ ।

फूंक फूंककर रखो कदम,
धोखेबाज़ ताक में हैं हरदम,
कोई किसी से नहीं है कम,
रखो विवेक, ये ही मरहम ।

स्वरचित मर्मस्पर्शी रचना – अभिनव ✍🏻

अभिनव कुमार एक साधारण छवि वाले व्यक्ति हैं । वे विधायी कानून में स्नातक हैं और कंपनी सचिव हैं । अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर उन्हें कविताएं लिखने का शौक है या यूं कहें कि जुनून सा है ! सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे इससे तनाव मुक्त महसूस करते…

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