कविता

वो बात नहीं रही

लगता तेरे जहां मे इंसानों की कदर नहीं रही
तभी तो इंसान को इंसानों से चाहत‌ नहीं रही ।।

लगता‌ है जा रहे हैं सुनहरे पल इस ज़माने के
तभी तो एक- दूसरे घर में वो बैठक नहीं रही ।।

लगता है बीत रहा है मेहमानों वाला दौर भी
तभी तो स्वागत करने वाली वो बात नहीं रही ।।

लगता है बीत गया है जमाना स्कूलों वाला भी
तभी तो शिक्षा मंदिरों मे वो हलचल नहीं रही ।।

लगता है रात मे भी जाग रहा है सूर्य रूपी शिशु
तभी‌ तो घोड़े बेचकर सोने वाली नींद नहीं रही ।।

सुना है तेरी चौखट से खाली हाथ नही जाता
तभी तेरे द्वार पर जाने वो वाली बात नहीं रही ।।

जानना है सब यहां क्या और क्यों हो रहा है
हे खुदा,क्या तुझमें कृष्ण वाली बात नहीं रही ।।

सुना था हर तुफान से तुमने गोकुल को बचाया था
क्या तुझमे अब पहाड़ उठाने की शक्ति नहीं रही ।।

मै लेखक अजय महिया मेरा जन्म 04 फरवरी 1992 को एक छोटे से गॅाव(उदासर बड़ा त नोहर. जिला हनुमानगढ़ राजस्थान) के किसान परिवार मे हुआ है मै अपने माता-पिता का नाम कविता व संगीत के माध्यम करना चाहता हूं मै अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूं

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