कविता

दारू पर टिकी अर्थव्यवस्था

दारू पर टिकी अर्थव्यवस्था

जिसके घर आना शुरू हुई ,
उस घर की खुशियां चली गई।

दारू वाले इसको पीकर,
रुतबा अपना दिखाते हैं ।

कभी खुशी के नाम ,
कभी गम के नाम एक पैक बढ़ाते।

हर दिन नया कोई बहाना बतलाते,
इसको पीकर खूब देखो यह कैसे इतराते ।

इन लोगों पता ही नहीं चला कब क्या खो देते ,
कितना कुछ खोकर भी यह दारू पर ही इतराते।

समाज में जो कुरीत इसको खूब सच बतलाते ,
नारी में सारे दोष बता खुद से पल्ला झाड़ते।

कितने घर उजड़ गए इस नशे के चक्कर में,
यह लाइलाज बीमारी से कब मुक्त होगा देश।

दारू मुक्त देश बनाना होगा,
हम सब मिलकर करें प्रयास।

मैरी
कन्नौज

मेरा जन्म कन्नौज के एक छोटे से कस्बा उमर्दा में हुआ है मेरी प्रारंभिक शिक्षा इंटरमीडिएट जीआईसी इंटर कॉलेज उमर्दा ग्रेजुएशन पोस्ट ग्रेजुएट और b.ed कानपुर यूनिवर्सिटी से किया है हिंदी साहित्य में बहुत ही रुचि है कविताएं लिखना, कहानियां,भजन लिखना मुझे अच्छा…

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