कविता

खुशहाली

अपने पन की बगिया है ,खुशहाली का द्वार
जीवन भर की पूंजी है ,एक सुखी परिवार
खुशहाली वह दीप है यारों
हर कोई जलाना चाहता है
खुशहाली वह रंग है यार्रों
हर कोई रमना चाहता है
खुशहाली वह दौर था यारों कागज़ की नावें होती थीं
मिट्टी के घरौंदे थे ,छप्पर की दुकानें होती थी
कहीं सुनाई देती थी रामायण
कहीं रोज अजानें होती थी
खुशहाली को नजर लग गयी
अब मद सब पर छाया है
खुशहाली कहीं दब गई
इंसानों ने इसे रुलाया है
यह बदकिश्मती है खुशहाली की हर रोज दंगा होता है
गणतंत्र यहाँ चौराहों पर
रोज रोज ही रोता है
जो शासक है वो ईश्वर से
खुद की तुलना करते हैं
और नेता आज के दौर के बस गिरगिट सा रंग बदलते है
खुशहाली को कोई समझ न पाया यह दौलत से नहीं मिलती है
खुशहाली को नजर लग गई
अब वह रुदन करती है ||

नाम : प्रभात पाण्डेय पता : कानपुर ,उत्तर प्रदेश व्यवसाय : विभागाध्यक्ष कम्प्यूटर साइंस व लेखक मेरी रचनाएं समय समय पर विभिन्न समाचार पत्रों (अमर उजाला ,दैनिक जागरण व नव भारत टाइम्स ) व पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।

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