कविता

शर्मसार हाथरस …

शर्मसार हाथरस …

काका हाथरसी,
आज बेहद दुखी,
जब होगा सुना,
है दुष्कर्म हुआ ।

रोयी होगी रूह,
बेटी बेआबरू,
छलनी कर डाला,
जीते जी मारा ।

पावन हाथरस,
शर्मसार बेबस,
ऑंखें झुकीं,
साँसें रुकीं ।

रौंगटे हुए खड़े,
कांप गई नसें,
पाप खुलेआम,
पूरा शहर बदनाम ।

दिया फ़ूल रौंद,
चीलों का झुंड,
होगी झपटमारी,
वो एक बेचारी ।

ना होगा बख़्शा,
ये कैसी परीक्षा !
हँस रही दरिंदगी,
लाचार है जिंदगी ।

पशुओं को पिछाड़ा,
छाया अंधियारा,
ये कैसी होड़ !
बस हवस का ज़ोर ।

इंसानियत लुप्त,
दुष्कृत्य गुप्त,
हों बलात्कार,
क्यूँ ना पलटवार ?

क्या करना सिद्ध ?
मर्दानगी साबित ?
कायराना हरकत,
पार सारी हद ।

ना डरें भेड़िये,
मन माफ़िक छेड़िये,
रक्षक की चुप्पी,
चूड़ियां क्या पहनी ?

कितना है सहना ?
कब तक चुप रहना ?
भर चुका घड़ा,
क्षमता ना ज़रा ।

जल्द आए कानून,
सख़्ती से सुकून,
अनिष्ट करने से पहले,
पापी लाख बार सोचे ।

दुराचारी करे संताप,
भोगे वो दुष्परिणाम,
नौबत ना लाओ ऐसी,
कि उपजे रानी झांसी ।

स्वरचित – अभिनव ✍

अभिनव कुमार एक साधारण छवि वाले व्यक्ति हैं । वे विधायी कानून में स्नातक हैं और कंपनी सचिव हैं । अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर उन्हें कविताएं लिखने का शौक है या यूं कहें कि जुनून सा है ! सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे इससे तनाव मुक्त महसूस करते…

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