कविता

तुम्हारा संदेसा आया

(तुम्हारा संदेसा आया)

मेरे गीतों के स्वर तुमसे सजे हैं 
“प्रिय”दिन-रात कानों  में गूँजें हैं 
कभी मौन ,कभी पायल  पहन 
थिरकते  हुए छम-छम  बजे हैं 

शब्दों ने भी  क्या माला बनाई 
नित जुड़ कर एक मूरत बनाई 
फिर  उसे  प्रेम से हार पहनाया  
कानों  में अपना  हाल  सुनाया 

प्रकृति भी कितनी उन्मुक्त हुई 
तुम्हें फाल्गुन बनाकर  बुलाया
कभी  मेघों  को भी दूत बनाया 
गगन में  तुम्हे चन्द्रमुख बनाया 

मन को विरह ने कितना तपाया 
तन को भी प्रतीक्षा ने खूब सताया 
देह निढाल उदासी के तिमिर में 
नैनो ने  फिर अश्रु निर्झर बहाया 

होली पर तुम्हारा  संदेस आया 
सुनाकर मन को बहुत बहकाया
ह्रदय कुसुमों ने पुलकित होकर 
मन उपवन को बहुत महाकाया

पवन  को  तेज  वेग मे बहाया 
गेसुओं को मदमस्त मेरे उड़ाया 
सिहर उठा फिर तन-मन बहक 
ह्रदय ने मधुपों का गुंजन सुनाया

वंदना जैन मुंबई निवासी एक उभरती हुई लेखिका हैं | जीवन दर्शन,सामाजिक दर्शन और श्रृंगार पर कविताएं लिखना इन्हे बहुत पसंद है | समय-समय पर इनकी कविताएं कई अख़बारों और पत्रिकाओं में छपती  रही हैं | इनका स्वयं का काव्य संकलन "कलम वंदन" भी प्रकाशित हो…

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